Kab Badi Ho Gayi || कब बड़ी हो गयी

 


कल जो मैं घुटनों के बल रेंग रही थी 

पता ही नहीं चला कब बड़ी हो गयी 

तुम्हारी गोद से नीचे उतर कर भागी 

कब कैसे अपने पैरों पे खड़ी हो गयी 

घर की चारदीवारी में फुदकते कूदते 

बाहरी दुनिया में निकलने लग गयी 

कल जो तुम काला टीका लगाती थी 

मेरी लाडो को कोई नजर ना लगाए 

भर भर के कैसे बलाएँ लिया करती 

वो श्रृंगार अब आधा अधूरा  लगता है 

जब खुद ही से सजनेसंवरने लग गयी 

वो स्वाद ही अलग था दूध मलाई का 

तुम जो बनाया करती थी अपने हाथों 

चाहे अब बाहर का जूस पीने लग गयी 

लोग अब मुझे हर जगह जानने लगे हैं 

स्वयं के हिसाब से सब पहचानने लगे 

 बहुतेरा नाम दिया दुनिया ने तो मुझे

कुछ ने अच्छा कहा तो किसी ने बुरा 

कोई मतलबी कहता है तो कोई टेढ़ा  

एक प्रेम तुम्हारा ही अनोखा औरों से 

तुम ही हो जिसके लिए मैं अच्छी हूँ 

पावन हूँ ह्रदय की सीधी हूँ  सच्ची हूँ 

तुम्हारी आँखों में ही मैं बदल न पायी 

आज भी वही की वही वही रह गयी 

कल जो मैं घुटनों के बल रेंग रही थी 

पता ही नहीं चला कब बड़ी हो गयी 

धन्यवाद् 

सुनीता श्रीवास्तवा 




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